Thursday, June 9, 2011

अध्यात्म मार्ग


साधना मार्ग
(अद्वैतवाद)
स्व को पूर्ण रूपेण परमात्मा से आपूरित कर, भगवत तत्व में लीन
अनुभूति :-
अहं ब्रम्हास्मि
प्रवर्तक/प्रचारक सिद्धगण :-
# भगवद्पाद श्री आदि शंकराचार्य
# स्वामी विवेकानंद
प्रेम मार्ग
(द्वैतवाद)
स्व को पूर्ण रूपेण परमात्मा में तिरोहित कर, भगवत तत्व में लीन
अनुभूति :-
हरिः परतरः
प्रवर्तक/प्रचारक सिद्धगण :-
# भगवद्पाद श्री माधवाचार्य
# श्री चैतन्य महाप्रभु

दोनों का गंतव्य, अंतिम ठोर, तो एक ही है, जो की तभी संभव है जब ‘स्व’ का अस्तित्व पूर्ण रूपेण नामशेष होगा l पार्थक्य थोड़ा सा दृष्टिकोण में है बस, और इसी लिए अभिव्यक्ति है अलग अलग l न कोई मार्ग अधिक श्रेष्ठ है, न कोई मार्ग अधिक सरल है और न ही कोई मार्ग अधिक वेगवान l कितनी गति से उस पथ पर आगे बढना है, यह तो अपनी अपनी प्यास पर आधारित है l कौन सा मार्ग चुनना है, यह भी आधारित है स्वयं की प्रकृति पर l
गुरू एक माली की तरह शिष्य रूपी बीज को अंकुरित करने के लिए, जहाँ एक ओर साधना की कड़ी धुप में उसे भूमि में गाड़ देता है तो दूसरी ओर प्रेम रूपी जल के शिंचन से उसकी तप्त काया को शीतलता भी प्रदान करता है l शिष्य के अंकुरण के लिए दोनों अति आवश्यक है, भूमि-सूर्य का तपन ओर वायु-जल का शिंचन l
किसी प्रकार के बीज को अंकुरित होने के लिए आवश्यक है अधिक जल की, तो कोई बीज बिलकुल सूखे हुए भूमि पर भी अंकुरण ले लेता है l अपने चारों ओर की प्रकृति को ही देख लें l जहाँ बंजर मरुस्थल में लगे खजूर के वृक्ष की अपनी उपयोगिता है, वहाँ जल से सराबोर लहलहाते धान का अपना मर्म है l इसीलिए प्रकृति इतनी सुन्दर है, उसका साहचर्य इतना आनंद प्रदान करती है l क्योंकि वह विधाता की योजना को आलिंगन करती है l
ओर हम है की बस, अपने अहं में चूर l प्रकृति ने हमारे लिए क्या संयोजन किया है, हमें उसका तो कोई भान ही नहीं l अपने बुद्धि ओर पराक्रम के बल पर ही दुनिया को जीतने निकले हैं l और हमारे लिए, यह संभव होगा ग्राह्य बनने से I स्वयं को उस गुरू रूपी माली के हाथों में सौंप देने से l अंकुरित होने के लिए सूर्य का तपन तो सहना ही होगा l बिना तपन के, बस जल पी कर आज तक कोई बीज अंकुरित हुआ है क्या ? बिना साधना के कोई मन अब तक निश्चल अखंड प्रेम में डूबा नहीं l क्योंकि, निश्चलता और अखंडता मन का स्वभाव ही नहीं l वह मन कैसे भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त करे ?
सुख ही सुख में रचा पचा, हरि से हेत न होए
कष्ट कुंजी का जोर पड़े तब, मन किवाड़ बिसरोये
और न ही बस तपस्या की ज्वलंत अग्नि से शिष्य रूपी बीज का अंकुरण होगा l साधना की अंतिम पराकाष्ठा क्या है ? पांडित्य ? योगबल ? सिद्धियाँ ? या फिर, आत्मज्ञान ? भगवत्प्राप्ति ? परम गंतव्य ? वह तब ही संभव हो पायेगा जब शिष्य स्वयं तो पूर्ण रूप से गुरू के हाथों में छोड़ देगा l वह मन को विसर्जित कर अपने चित्त पर गुरू की प्रतिमा अंकित कर पायेगा [ध्यान मूलं गुरोर्मुर्ती]; वह अपने ह्रदय के भावों के माध्यम से गुरू चरणों पर अश्रु-पुष्पों की वर्षा कर पायेगा [पूजा मूलं गुरोर्पदम]; वह गुरू के द्वारा प्राप्त मंत्र/कार्य को सार्थक करने हेतु कठिन पुरुषार्थ में प्रवृत्त होगा [मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं] और अंततः निश्चिन्त हो गुरू के हाथों में अपनी गति तो समर्पित कर देगा [मोक्ष मूलं गुरोर्कृपा] l तभी होगा उस बीज का अंकुरण, जो एक छायादार वृक्ष बनकर असंख्य मनुष्यों की प्यास बुझायेगा l
हमारा ध्येय न हो साधना की पराकाष्ठा और न ही प्रेम की पराकाष्ठा ... हमारी पराकाष्ठा तो बस है - “समर्पण” l

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