Thursday, June 9, 2011

कविता से प्रार्थना



हृदय वीणा के मधुर स्वरों में
मृदु कोमल सुशोभित बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
मन के इस उहापोह में
बर्बस्ता की लौ बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
कठिन अरण्य सम जीवन के
चट्टानों से झरना बनकर
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
आलोकित तन-मन में सुन्दर 
संयोजित कला बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
विषय भोग के दलदल में भी
निस्पृह सा कमलदल बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
नपुंसकता की बेड़ीयाँ तोड़ 
पौरुषता का दम बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
अवकुंठित मन की वेदनाओं में
अश्रु रूपी श्रिंगार बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
करुणासिक्त ह्रदय में तुम 
भाव वात्सल्यमयी बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
उज्वल निर्मल चिदाकाश में 
इन्द्रधनुष का हार बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
शब्दभ्रम के इस हाट में 
अनुभव की किरण बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
युक्ति-तर्क के मायाजाल में 
स्तम्भ शुन्यता का बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
अहंकार-मौजों के मध्य 
समर्पण-मीनार बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर 
जन्म-मरण के चक्रव्यूह से 
मोक्ष मार्ग का प्रेरक बनकर 
बह निकलों तुम शब्द बूंदों में वाणी की रसधार बनकर

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