मेरे चेतानाचेतन मन के जलाशय में
वास करता है पंचशीर्ष कालिया नाग
काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार
हे हरि! हरण करो, करूँ मैं इनका त्याग
वास करता है पंचशीर्ष कालिया नाग
काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार
हे हरि! हरण करो, करूँ मैं इनका त्याग
साधक अपनी अध्यात्म यात्रा की पगडण्डी पर इन पांच विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहम्) से सदैव झुझता रहता है l एक क्षण तो उसे किसी दिव्य आनंद की छटा का अनुभव प्राप्त होता है, तो दुसरे ही क्षण वह जाने-अनजाने माया के वशीभूत होकर अपने आप को किसी भ्रम के अंधकार कुएं में पाता है l यों तो यह सब माया की अपनी लीला ही है, परन्तु हर साधक यह कोशिश करता है की वो इसे भेद पाए और इस माया के मध्य में भी स्वयं को स्थिरता प्रदान कर अपने लक्ष्य की ओर द्रुतगमन कर सके l यदि यह संभव हो गया तो बहुत कुछ संभव हो जायेगा, अन्यथा यदि गुरु कोई दुर्लभ से दुर्लभ सामग्री या साधना भी दें दे, तब भी वह निष्फल ही जागेगा l
कुछ इसी प्रयास के अंतर्गत हम यह समझने की कोशिश करते है की इन विकारों का उद्गम स्थान कहाँ है एवं इनका निर्मूल किस तरह से किया जाये l सर्वप्रथम - "काम"... यह गौर करें की यह विकार स्थूल से सुक्ष्म की ओर जा रहे है l"काम की उत्पत्ति, उसका उद्गम स्थान है देह"
किसी चीज़ का निर्मूल भी उसी धरातल पर हो सकता है जहाँ से उसकी उत्पत्ति हो रही हो l यदि काम का अस्तित्व देह के स्तर पर है, तो उसे नियंत्रण एवं दिशा दी जा सकती है इस देह के नियंत्रण के द्वारा ही l शास्त्रों में इसके लिए यम-नियमादी उपायों का वर्णन है l ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को आचरणबद्ध करके इस दिशा की ओर अग्रसर हो सकते है l
"क्रोध की उत्पत्ति, उसका उद्गम स्थान है मन"मन में सर्वप्रथम क्रोध की उत्पत्ति होती है और फिर देह पर उसके प्रतिभाव आते है l क्रोध को वश में करने के सभी उपाए स्वास के साथ सम्बंधित है, चूंकि स्वास एवं मन का सीधा सम्बन्ध है l प्राणायाम-ध्यानादि के द्वारा हम धीरे-धीरे इस पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते है l
"लोभ की उत्पत्ति, उसका उद्गम स्थान है चित्त"महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांग योग के सूत्रों में कहा है, "योगः चित्त वृत्तिनिरोधः"l संपूर्ण योग शास्त्र का ध्येय ही यह है की चित्त की वृत्तिओं का निरोध हो l चित्त की विक्षिप्तता से ही उद्भव होता है दुर्विचार, जो फिर देह को दुष्कर्म की ओर प्रेरित करता है l एक निर्मल और स्वच्छ आकाश सदृश चित्त की अवस्थिति में ही आत्मा का प्रकाश आलोकित होता है l सभी प्रकार की साधनाएं (ध्यान, जप, भक्ति...) इसी ध्येय की ओर प्रेरित है l
"मोह की उत्पत्ति, उसका उद्गम स्थान है जिजीविषा"जिजीविषा का अर्थ है, जीवन जीने की आकांशाI चाहे किसी भी वस्तु/व्यक्ति के प्रति मोह हो, परन्तु उसकी उत्पत्ति तो होती है स्वयं के 'जीने की आकांशा' से l श्रीमद भगवद गीता में अर्जुन के द्वारा इस शब्द का उल्लेख है, और इसके निर्मूलन का पथ भगवान् श्री कृष्ण ने बताया है - "निष्काम कर्म"l चाहे ध्यान मार्ग का पथिक हो या फिर भक्ति मार्ग, इस संसार के प्रति आसक्ति भाव से मुक्त होने के लिए और मोह का पूर्ण नाश करने के लिए निष्काम कर्म की स्थिति तक पहुंचना ही एक मात्र उपाए है l
"अहम् की उत्पत्ति, उसका उद्गम स्थान है द्वैतभाव"
चूँकि यह विकार उत्तरोत्तर सुक्ष्मातिसुक्ष्म है, एक के पूर्ण निर्मूल होने से उससे पूर्व के अधिक स्थूल विकारों का स्वतः ही उच्छेद हो जाता है l परन्तु प्रारंभिक स्तर पर यह सभी विकार साधक तो अपने अपने स्तर पर प्रभावित करते हैं l जब अहम् नामशेष हो जाता है तो कोई भी विकार नहीं रहताI यह स्थिति ही साधना का अंतिम सोपान है l साधना का अंतिम चरण, जहाँ समाधी की स्थिति में साधक के स्वयं का द्वैतभाव परमात्मा में पूर्णतः तिरोहित हो जाता है, वहां अहंकार का अस्तित्व नहीं रहता l
हालाँकि साधना का पथ तो अनुभूति का पथ है, पर आशा है की कुछ चीजों के स्पष्टीकरण से उस मार्ग पर चलने में और परिस्थितिओं की समझ को ग्राह्य करने में अनुकूलता प्राप्त होगीI उपरलिखित तथ्य को एक कोष्ठक में इस तरह वर्णित कर सकते है:
१. काम --- देह --- यम-नियमादी (इन्द्रियों का संयम)
२. क्रोध --- मन --- प्राणायाम-ध्यान
३. लोभ --- चित्त --- आध्यात्मिक ध्येय प्रेरित साधना (ध्यान, जप, भक्ति)
४. मोह --- जिजीविषा --- निष्काम कर्म की स्थिति
५. अहम् --- द्वैतभाव --- समाधी (साधना की पराकाष्ठा)
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