सम्पुर्ण विश्व की आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बिंदु है, भारतवर्ष l विश्व के किसी भी कोने में जहाँ कहीं भी आध्यात्मिक गवेषकों ने आत्मिक आनंद, कर्म की परिभाषा और प्रकृति में निहित रहस्यों के अनुसन्धान में विवेचना की, तो उन्हें स्पष्टतः सबसे अधिक तर्कसंयुक्त, आधुनिक विज्ञान से मेल खाता हुआ और कोई अनुभवप्रेरित तथ्य की प्रतीति हुई, तो वह थी इस आर्यावर्त से उपजी, वैदिक ऋचायों द्वारा उद्भासित एक अद्भुत संस्कृति l उसी संस्कृति की अगाध खान में से एक अल्प आचमन, एक अकाट्य विज्ञान है यह - यज्ञ विधान l
आज का समाज तार्किक परिपेक्ष में ही वार्तालाप करने का आदि है, और इस में कोई गलत बात भी नहीं l अंधविश्वास एवं रूढ़ीवादिता से ग्रस्त मानसिकता किसी भी समाज के लिये उपयोगी नहीं l परन्तु तर्क के साथ आवश्यक है, धैर्य, विश्वास, आस्था और अज्ञात में अनुसन्धान करने की चाह l
वैदिक संस्कृति ने कई उपाय बताये हैं, योग, ध्यान, मंत्र, प्राणायाम...जिसके द्वारा आतंरिक आंदोलन, आतंरिक शुद्धि, आतंरिक चेतना का अनुभव किया जा सकता है l उसी सन्दर्भ में यज्ञ-यागादि विधान, वैदिक ज्ञान का एक अभूतपूर्व बाह्य प्रयोग है l जिस तरह ध्यान, मंत्रजाप, प्राणायाम, आदि के द्वारा मनुष्य अपने शरीर और अंतश्चेतना का पोषण करता है, यह अत्यंत आवश्यक है की वह उस पृथ्वी और प्रकृति जिसमे की वह स्वयं वास करता है, उसका भी पोषण करें l क्योंकि हमारे जीवन के समस्याओं, विशेषतः आधिदैविक एवं आधिभौतिक, के निदान की यदि कोई पध्यति है, तो वह है यज्ञ विधान l
मनुष्य जो अनाज खाता है, वह पेट में जाकर परिवर्तित हो जाता है ... खून, मांस पेशियाँ, चर्बी, इत्यादि में l उस खाद्य पदार्थ के विघटन की क्रिया तो आधुनिक विज्ञान विस्तृत रूप से दे सकती है, पर क्या आज तक विज्ञान कोई ऐसा यंत्र बना पाई है, जिसमें हम रोटी, दाल, सब्जी, चावल...डाल दें और वह उसे रक्त, मांस, मज्जे...में परिवर्तित कर दें? इस शरीर के अंदर किस प्रक्रिया से यह रूपांतरण हो रहा है, उसका कोई अनुमान वैज्ञानिकों को नहीं है l कहने का तात्पर्य यह है की Modern Science इस प्रकृति में घट रहे हर एक क्रिया-कलाप को समझने में असमर्थ है l शायद इस तरह का यंत्र बनाने में हजारों वर्ष लग जाएँ, तब भी बन पायेगा या नहीं कहना मुश्किल है l
हम पेट की भूख को जठराग्नि कहते हैं और खाद्य द्रव्य उस जठर की अग्नि की उर्जा से रूपांतरित होकर शरीर को पोषण देती है l आयुर्वेद में कहा गया है की सिर्फ़ पौष्टिक खाद्य पदार्थ ही नहीं, पाचन और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है की खाने की प्रक्रिया, स्थिर चित्त एवं शांत मन से किया जाये l अति स्वादिष्ट भोजन भी तृप्ति और पुष्टि देने में असमर्थ है यदि मन विक्षिप्त हो l
ठीक उसी तरह से, यज्ञाग्नि माध्यम है इस प्रकृति को पोषण करने का l चूंकि यह प्रकृति हमारा पालक है और हमारा जीवन उसी के नियमों के आधीन है, यह अत्यंत आवश्यक है की हम इसके साथ एकात्मकता स्थापित करें l और यज्ञ विधान, उसी सन्दर्भ में एक आध्यात्मिक प्रयोग हैं l हम हूत-द्रव्य के माध्यम से, एक योजनाबद्ध तंत्र के द्वारा उस प्रकृति को पोषक तत्व का संचार करतें हैं l अग्नि की उर्जा एवं वैदिक मंत्रोच्चार के कंपन का संगठित आन्दोलन उस हूत-द्रव्य को परिवर्तित करती है किसी सुक्ष्म तत्व में, जो की वायुमंडल में स्थित प्राण-उर्जा को निहित सकारात्मक वेग प्रदान करती है l और प्रकृति उसका रूपांतरण कर हम सब के लिये सुख, शांति और आनंददायक परिस्थिति का निर्माण करती है l यह ही इस यज्ञ प्रणाली का ध्येय है l
जैसे खाद्य को ठीक ढंग से पाचन करने के लिये ज़रूरी है की हम शांत चित्त से उचित खाद्य ग्रहण करें, ठीक वैसे ही, धैर्य और आस्थायुक्त मनःस्थिति में किया हुआ प्रामाणिक यज्ञ विधान इस युग में त्वरित फलप्रदायक उपाय है l
इन वैदिक विधायों का पुनरुद्धार ही मनुष्य जीवन को शांति, तृप्ति एवं पूर्णता देने की दिशा है l अस्तु l
No comments:
Post a Comment