Wednesday, December 5, 2012

SADHNA KRAM / साधना क्रम

We live in this world with our consciousness distributed among many centres in some proportion or other. If we travel from external gross status towards more internal and subtler states, we will see that our consciousness can have four demarcation lines separating these centres. They are namely, Body (Dehabhav), Intellect (Buddhibhav), Heart (Prembhav) and Spirit (Aatmabhav).

Also, upon finer observation we will find that these different states have their own predominance at different ages of an individual.

During Balyavastha, a child is in a state of Aatmabhav. He looks at the world with amazement (vishmaya). He is neither attached to the world nor detached. He is simply living in the PRESENT and reciprocates his experience 100% genuinely...pleasing or displeasing.

As the child grows, he develops Premabhav. First towards his mother & father, then towards family and friends. Subsequently, though he does develop his Intellect, but is mostly guided by Prembhav upto a certain age. During years of adolescence (Yuvavastha), his Prembhav transforms due to hormonal changes and gets directed towards the opposite sex. Yet his Prembhav continues and dominates...

Further, when he heads towards Praudavastha, more worldly issues associated to sustenance, wealth, security, etc. occupy his priorities. Here his Buddhibhav takes the lead. Through his intellect he engages all the resources to plan his means and achieve his goals.

Then with time, he looses his physical strength and the inevitable wheel of time gradually brings about old age (Vriddhavastha). His focus from time to time gets diverted to the Body (Dehabhav) due to some ailment or other constantly attacking and degenerating his physical self...finally leading to Death, one fine day.

We are all following this standard pattern and day by day coming closer and closer to death. Though, death of the external self is mandatory, but the inner consciousness need not follow the same route.

SADHNA is the process of REVERSING this mundane path of the consciousness and taking it back towards more centred, more subtler states...from Body to Intellect to Heart to Spirit...which is its ORIGIN.


इस पृथ्वी पर हमारे अस्तित्व के दौरान, हमारी चेतना विभिन्न केन्द्रों में विखंडित रहती है l यदि हम बाह्य स्थूल चेतना से क्रमशः सुक्ष्म अंतस की ओर यात्रा करें तो पायेंगे की चार केन्दों में इस चेतना का घनिभूतिकरण होता है l वे हैं, शरीर (देहभाव), विचार (बुद्धिभाव), ह्रदय (प्रेमभाव) एवं आत्मा (आत्मभाव) l

साथ ही यदि हम थोड़ा ध्यान से देखें, तो पायेंगे की चेतना के इन केन्दों का घनिभूतिकरण मनुष्य के जीवनकाल में आयु के अलग-अलग मोड़ पर आता है l

शैशवावस्था के दौरान, शिशु “आत्मभाव” (आत्मा केंद्र) में स्थिर होता है l वह विस्मय से जगत की ओर देखता है l उसकी न ही संसार में आसक्ति होती है और न ही विरक्ति l वह तो केवल वर्तमान में जीता है एवं अपने प्रतिभाव की शत प्रतिशत अभिव्यक्ति करता है...प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता l

ज्यों ज्यों उसकी आयु में वृद्धि होती है, उसमें “प्रेमभाव” उभरता है l सर्वप्रथम अपने माता-पिता के प्रति और तत्पश्चात परिवारजन एवं मित्रों के प्रति l समय के साथ यद्यपि उसमें विचारशक्ति का उदय होता है, परन्तु एक निश्चित आयु तक वह प्रेमभाव के वेग से ही प्रेरित व संचालित रहता है l युवावस्था में उसका यह प्रेमभाव न्यासर्गिक परिवर्तन के फलस्वरूप विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होता है l और “प्रेमभाव” (ह्रदय केंद्र) अपना प्रभुत्व रखते हुए कायम रहता है...

जैसे वह प्रौढ़ावस्था की दिशा में बढ़ता है, आजीविका, संपत्ति, सुरक्षा, इत्यादि विविध सांसारिक विषय उसकी प्राथमिकता बन जातें हैं l यहाँ पर “बुद्धिभाव” (विचार केंद्र) अपनी अग्रिमता बनाये रखती है l अपने वैचारिक क्षमता के माध्यम से वह अपनी सारी शक्ति को योजनाबद्ध रूप से अपने ध्येय को पाने में लगा देता है l

और समयचक्र का अनिवार्य अध्याय फ़िर लेकर आता है शारीरिक क्षीणता के साथ, वृद्धावस्था l कोई न कोई रोग अथवा दैहिक कष्ट व्यक्ति की चेतना को बार बार घुमा कर ले आती है “देहभाव” (शरीर केंद्र) में जो की धीरे-धीरे शरीर का क्षय करता है...अंततः एक दिन, मृत्यु शय्या तक l

हम सब इस अबाधित योजना का अनुसरण करते हुए दिन प्रतिदिन मृत्यु के समीप जाते रहते हैं l यद्यपि इस बाह्य देह का पतन निश्चित है, परन्तु हमारी अंतस चेतना इसी योजना का अनुसरण करें ऐसा आवश्यक नहीं l

“साधना” हमारे अंतरंग चेतना को इस बहिरंग योजना से मुक्त कर, उसे पुनः आत्मकेंद्रित कर सूक्ष्मतम की ओर...शरीर केंद्र से विचार केंद्र से हृदय केंद्र से आत्म केंद्र...तक ले जाने की क्रिया है, जो की हमारा मूल उद्गम है l

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