Monday, December 31, 2012

त्याग


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तन को प्रिय कामहै, मन को द्वेषराग
जन तो रचै अभिमानमें, ठोर न पावें त्याग

त्याग में है आनंद छिपा, त्याग की जगावें भूख
त्याग की महिमा अनंत, उसी में हैं परम सुख

कुछ त्याग प्रभु देवत हैं, कुछ की कला है जगानी
कुछ त्याग अनिवार्य है, और कुछ को है अपनानी

मल-मूत्र का त्याग सुखद, यह प्रकृति का धर्म
शुक्र त्याग पुरुष का, रजः स्त्री का दैहिक कर्म

त्याग का उचित परिमाण ही, आयु-आरोग्य देत
अति त्याग की परिस्थिति है, रोग-भोग का संकेत

त्याग बिन है जगत अधूरा, इसी से बना समाज
त्यागक्षण की गहराई में ही, छुपा मुक्ति का राज

उस त्यागक्षण में थिर हो पाना, साक्षी भाव के संग
मुक्त हो चित्तवृत्ति से, न ही विकारों का कोई रंग

ऐसे पल की गभीरता का, जप-तप-ध्यान है सार
सबसे उत्कृष्ट त्याग है, तन व मन का व्यापार

इस प्रकार अपने जीवन में हम, त्याग की कला अपनावें
आतम-चैतन्य की परतों को त्याग, परमानन्द को पावें

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