Thursday, June 9, 2011

तन-मन-धन



तन-मन-धन सब अर्पण गुरू चरणन कीजे...

सही अर्थो में यदि किसी चीज़ को हमें समर्पित करने कि ज़रूरत है तो वह है "मन"। परंतु यदि यह इतना ही आसान होता तब तो बात ही क्या थी। हमारा मन जिन दो चीजों में ही सदैव आसक्त रहता है, वह है "तन" या फिर "धन"। मन तो अगर खोजें तो, वह इन्हीं दो जगह पर हमे मिल जाएगा।
बस यही कारण है कि "दान" और "सेवा" का इतना अधिक महत्व है। दान से जुड़ा है धन और सेवा से जुड़ा है तन। अतः जहाँ "धन/दान" और "तन/सेवा" कि गति होगी, उस ओर "मन" स्वतः ही अग्रसर होगा।
शायद इसी कारण बना होगा यह अभिव्यक्ति - "तन-मन-धन" !!!

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